फ़िरंगीहाल ही में एक उपन्यास पढ़ा,"फ़िरंगी", सुरेश कांत जी ने लिखा है और 1997 में ग्रंथ अकादमी , नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ये उपन्यास मैं ने दूसरी बार पढ़ा है, और उतने ही मजे से पढ़ा जैसे पहली बार पढ़ा था। आज कुछ इसी के बारे में।
उपन्यास जितना रोचक है उतना ही आखें खोलने वाला।अक्सर उपन्यासों में लेखक किसी एक या अनेक पात्रों से आरम्भ करता है और फ़िर कहानी उन्ही के जीवन की घट्नाओं के इर्द गिर्द घूमती रहती है, पर इस उपन्यास में कोई कहानी नहीं सिर्फ़ किस्से हैं पर ऐसा नहीं लगता कि कड़ी टूट गयी है।
ये किस्से उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के है जब अग्रेजों का राज था,पर कंपनी राज तेजी से अपने ढलान पर था। जब भारत में रेल गाड़ियां नहीं चलती थीं और लोगों को पैदल या घोड़ों वगैरह पर एक जगह से दूसरी जगह जाना होता था। लोग कभी अकेले, दुकेले या काफ़िले बना कर सफ़र करते थे।अपना काफ़िला न हो तो किसी और दल के साथ जुड़ जाते।
यात्रा कई कई दिनों तक चलती और खतरों से खाली न होती।घर से निकला हर यात्री अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचता, वह खो जाता है, लापता हो जाता है। खतरे तो आज भी वैसे ही बरकरार हैं, हां टाइम जरूर कम लगता है। लापता तो आज भी हो जाते है, यात्रा करते हुए क्या, घर के बाहर खेलते हुए बच्चे भी गायब हो जाते है(निठारी कौन भूल सकता है)पर ये कहानी कुछ और ही प्रकार के लापता होने की है।
उन दिनों लोगों का गुम हो जाना बिल्कुल खामोशी से दब जाता था। उनके खो जाने की राह पर कोई सुराग नहीं रह जाता था। झुंड के झुंड सिपाही लापता हो जाते थे। उत्तर भारत में तीर्थ को गया दक्षिण का बड़ा सा दल फ़िर कभी अपने गावँ न लौटता। गुम हो जाना उस समय विशाल भारत में प्रतिदिन का नियम था। एक अग्रेंज इतिहासकार ने हिसाब लगाया तो पाया हर साल 40,000 लोग गुम हो जाते थे, अपने सामान, जानवरों, अंगरक्षकोंके साथ, कुछ इस तरह कि पता ही न लगता कि उन्हें धरती खा गयी या आसमान निगल गया।
दरअसल हर किस्सा एक ठ्गी कि दास्तां है, सच्ची घट्नाएं जो इतिहास के पन्नों में कहीं दफ़न हैं।
स्लीमैन नामक एक अग्रेंज जिलाधीश पर ठगों को समझने का गहरा जनून था, सरकारी सेवा से हट जाने के बावजूद उसने ठगों कि दुनिया को गहरे पैठ कर समझा और फ़िर ठगों के राजा फ़िरंगी ठग को साधा, इतना आसान न था उस शातिर दिमाग को साधना पर स्लीमैन भी कुछ कम न थे। आखिरकार अपने काम में सफ़ल रहे पर क्या ठ्गों का नामों निशां मिटा सके, ना, वो तो बीजरक्त के रक्त जैसे फ़िर उठ खड़े हुए और आज भी मौजूद है हमारे बीच। उल्टे अब तो ख्तरा बढ़ गया है, पहले तो इन ठ्गों से खतरा सिर्फ़ यात्रा के दौरान होता था लेकिन अब तो ये बम्बई की बाहरी परिधी के पास बसी कॉलोनियों पर भी हमला करते पाए जाते हैं । पहले इनकी करतूतों की खबर किसी को
कानो कान न होती अब तो ये कच्छा बनियान गैंग के नाम से मशहूर हैं। ये ठग तब भी पूरे भारत में फ़ैले थे और आज भी पूरे देश में फ़ैले हैं। हां , इनके काम करने के तरीके अलग अलग हैं। और उसी पर आधारित है इनके प्रकार-
खूनी ठग, जो झिरनी उठाते थे, धतुरिए, तस्माठग, मेख-फ़ंसा ठग, भगिना(जो नाव में सफ़र करने वालों का शिकार करते थे),ठेंगाड़े,और भी न जाने क्या क्या।
स्लीमैन बताते हैं कि ये खूनी ठ्ग एक अलग ही भाषा बोलते थे, न तो वह हिन्दी थी, न उर्दू, अरबी-फ़ारसी, तमिल-तेलूगु, किसी भी भाषा के साथ उसका कोई मेल न था, मेखफ़ंसा और भगिना की भाषा के साथ भी नहीं, ठगों की भाषा का नाम था 'रामासी', और इनका कत्ल करने का हथियार होता था महज एक रुमाल जिसमें एक चांदी का सिक्का बंधा होता था। स्लीमैन ने रामासी सीख ली थी , इसी वजह से वो ठ्गों के राजा फ़िरंगिया को वश में कर पाए।
एक बात और जो जहन में आती है वो ये कि आदमी की प्रवत्ती नहीं बदलती, उस वक्त भी ये ठग यात्रिओं का विश्वास जीत कर अपना काम करते थे, चाहे कितना भी वक्त लगे, धैर्य इनमें खूब था, एक नंबर के ड्रामेबाज और आज भी सुनते है ट्रेनों में किसी ने चाय, कोल्ड ड्रिंक या बिस्कुट खिला कर लूट लिया। छुटपन में जब ट्रेन से सफ़र करते तो आस पास के सहयात्रियों से सहज ही मित्रता गांठ लेते, उसके लिए अपने पिता से डांट खाते, हमारी मां को भी लगता कि इसमें हर्ज ही क्या है, पर हमारे पिता से अगर सहयात्री पूछ बैठ्ता भाईसाह्ब कहां जा रहे हैं तो जवाब मिलता तुमसे मतलब्। बहुत खराब लगता था पर आज इस उपन्यास को पढ़ कर लगता है कि कितने सही थे वो और
कितने अपने परिवार की सुरक्षा को ले कर कितने सजग्। अब कई बार अकेले बम्बई से इन्दौर जाना होता है, और हम देख कर हैरान है कि अब हम भी वही करते हैं जो हमारे पिता जी किया करते थे, खास कर इस उपन्यास को पढ़ने के बाद्।
यहां मुझे याद आ रहा है एक और वाक्या- अगर इन्दौर सड़क से जाया जाये तो महाराष्ट्रा और मध्य प्रदेश की सीमा पर एक इलाका आता है(नाम तो याद नहीं आता) एकदम उजाड़, छोटी छोटी पहाड़ियां सड़क के दोनो ओर्। दिन में तो ठीक, पर रात में वहां दोनों पुलिस की गश्त तैनात रहती है। इन्दौर से आने वाली सब गाड़ियां वहां रुक जाती हैं , एक काफ़िला बनता है गाड़ियों का, फ़िर आगे आगे पुलिस की गाड़ी और पीछे पीछे ये काफ़िला, और काफ़िले के पीछे एक और पुलिस की गाड़ी चलती है सरहद पार कराने। क्या मजाल कि कोई लाइन तोड़ आगे भागने की कौशिश करे, ये ठ्गों का दल सड़क किनारे की पहाड़ियों के पीछे ताक में बैठा रहता है , कोई कार या ट्र्क भी अकेला पड़ा नही कि घेर लिया, बस्।
पोस्ट बहुत लंबी हो गयी है, आप लोग सोचेगें हम सुनने क्या बैठे मैडम तो लेक्चर ही देने पर उतर आईं, तो साहब यहीं इति श्री करती हूं। अगर आप लोग सुनना चाहे तो इन ठ्गों के तौर तरीके, रीति रिवाज और पारवारिक जीवन के बारे में वर्णन करुंगी और ठगी को कैसे अंजाम दिया जात था के किस्से सुनाउगीं।