जुड़ी एक और कड़ी
मनीष
कुमार का जब मेल मिला कि वो अपने कॉलेज में ब्लोगिंग पर सेमिनार करने जा रहा था तो
सिद्धार्थ जी के वर्धा में करवाये सेमिनार की सुखद यादें ताजा हो गयीं। फ़िर ये
सेमिनार तो हमारे घर से महज 50 कि मी की दूरी
पर हो रहा था। जाना तो तय था।
सिद्धार्थ जी का फ़ोन आया कि हम आप के
शहर आ रहे हैं आप शहर में ही होगीं या कहीं बाहर । बत्तीसी पूरी बाहर आ गयी, हमने कहा हम न सिर्फ़ शहर में होगें बल्कि सेमिनार में भी
आयेगें और आप घर पर भी आइएगा। दर असल वर्धा जाने से पहले सिद्धार्थ जी मेरे लिए एक
सिर्फ़ नाम भर थे, एक अजनबी, लेकिन उनकी और उनकी पत्नी की आत्मियता और मेजबानी ने ऐसा जादू
डाला कि जब तक हम वर्धा से वापसी की ट्रेन पर बैठे हमें लगा हम अपने छोटे भाई के
घर से वापस जा रहे हैं। खुशी तो होनी ही थी।
पता चला शैलेष भारतवासी भी आ रहा है।
हमने सोचा लगे हाथों हम भी अपने कॉलेज के बच्चों के लिए एक छोटी सी वर्कशॉप रख लें
ब्लॉग कैसे बनाया जाता है सिखाने के लिए। प्रिसिंपल से बात की, बात आगे बड़ते बड़ते यहां तक पहुंची कि हम भी अपने कॉलेज
में सेमिनार कम वर्कशॉप रख लें। हमने मनीष से बात की कि उसके रिसोर्स परसन हम
इस्तेमाल कर लें तो कोई एतराज, उसने सहर्ष सहमति
दे दी। तो निश्चित ये हुआ कि कल्याण का सेमिनार 9-10 दिसंबर को है और हम अपना सेमिनार 8 दिसंबर को रख लें।
हमने अपना सेमिनार सुबह साढ़े आठ बजे
से शाम के छ: बजे तक रखने का निश्चय किया। आठ की सुबह आठ बजे जब हम इंतजाम करने की
आपा धापी में थे सिद्धार्थ जी का फ़ोन आया।
हमने पूछा कल्याण पहुंच गये क्या तो बोले नहीं हमारी तो ट्रेन छूट गयी अब हम प्लेन
से आ रहे हैं शाम तक पहुंचेगें। उस समय डिटेल्स लेने का समय न था हमने कहा हम शाम
को फ़ोन करेगें। शैलेष जिस दोस्त के घर ठहरा था वो दोस्त का घर मेरे घर से पांच
मिनिट की दूरी पर था। खैर शैलेष दोपहर को अपने आप कॉलेज पहुंचा और शाम को हम साथ
में वापस आये। अब हमने सिद्धार्थ जी को फ़ोन लगाया, करीब सात बजे होगें।
हमने कहा शैलेष भी यहीं है आप भी रवींद्र और अविनाश जी के साथ आ जाइए साथ में खाना
खायेगें। उन्हों ने मन तो बना लिया लेकिन शायद गाड़ी का इंतजाम न हो पाया। उन्हों
ने कहा ये निमंत्रण कल तक के लिए स्थगित कर दिया जाए। प्रस्ताव मान लिया गया और
शैलेष अपने दोस्त के घर चला गया। अगले दिन वैसे भी शनिवार था, हमारे पति देव को ऑफ़िशली छुट्टी होती है मतलब उस दिन
थोड़ा जल्दी ऑफ़िस से आ जाते हैं। हमने बता दिया कि हमारे वर्धा वाले मित्र आ रहे
हैं, कहीं ऐसा न हो कि आप की वजह से हमें
खाने की टेबल पर इंतजार करते रहना पड़े। जवाब में एक हल्की सी मुस्कुराहट मिली।
हमें कभी कल्याण जाने का अवसर नहीं
मिला था,क्या रूट लेना है
इस बात को ले कर थोड़ी चिंता थी। पतिदेव ने पूरा रुट लिख कर दिया, साथ ही काफ़ी डरा दिया था - अगर वापसी में देर हो जाए तो
शॉर्ट कट से मत आना, संकरी रोड है दो
पहाड़ियों के बीच में, स्ट्रीट लाइट भी
नहीं है, ट्रकों का
ट्रेफ़िक मिलेगा। खैर हम चल दिए।
वहां जा कर सिद्धार्थ जी, अविनाश जी, अशोक मिश्र जी, रवींद्र जी से मिल कर वर्धा मुलाकात को चाय की चुस्कियों के
साथ ताजा किया जा रहा था कि रवि रतलामी जी दिख गये, वो दो साल पहले मेरे कॉलेज में सेमिनार में आ चुके थे, दो साल बाद उनसे मिल कर भी हम खुश हो रहे थे। शैलेष तो
आते ही लाइव वेबकास्टिंग के चक्कर में व्यस्त हो गया और हम सब सबसे आगे वाले सोफ़ों
पर पसर गये। हरीश अरोड़ा जी और केवलराम जी से मैं पहले नहीं मिली हुई थी, उनसे मिल कर भी ऐसा नहीं लगा जैसे पहली बार मिल रही हूँ।
केवलराम तो बातचीत में इतने विनम्र रहे कि मुझे लगा अपने किसी छात्र से बात कर रही
हूँ।
मनीष ने नमस्कार करते ही कह दिया कि आप सिर्फ़ गप्पें नहीं मारेगीं आप को काम
भी करना है। अब एक शहर के हैं, ब्लोगर बंधु हैं
एक ही प्रोफ़ेशन के हैं तो इतना तो हक बनता है उसका। उसने हमें कहा कि आप को दोनों
दिन की सभी सत्रों की रिपोर्टिंग करनी होगी। लो जी यहां भी कलम घसीटी। न नुकुर
करने का तो सवाल ही नहीं उठता था ।
सिद्धार्थ जी ने लाइव सेमिनार की
कमैंट्री देने के लिए अपना लैपटॉप संभाला और हमने कागज कलम्। हम दोनों के बीच में
बैठे रवींद्र जी कभी लैपटॉप में झांकते तो कभी हमारी चलती कलम। जैसे ही मनीष ने
मंच संभाला और बोलना शुरु किया हम समझ गये कि जिस तेजी से ये बोल रहा है हम उतनी
तेजी से लिख नहीं पायेगें और रिपोर्टिंग में कुछ न कुछ जरूर छूट जायेगा। तो हमने
जो कुछ बोला जा रहा था उसको उसी समय अंग्रेजी में अनुवादित कर लिखना शुरु कर दिया।
रवींद्र जी अचरज में थे कि जिस धाराप्रवाह में बोला जा रहा है हम उसी धाराप्रवाह
में उसे अनुवाद कर कैसे लिख रहे हैं। हमने कहा बाद में हम इसका फ़िर हिंदी अनुवाद
कर रिपोर्ट लिखेगें।
शाम को निकलते निकलते साढ़े पांच बज
गये। वादे के मुताबिक सिद्धार्थ जी, रवींद्र जी और अविनाश जी को मेरे साथ घर चलना था, मेरी ही गाड़ी में। शैलेष तो था ही
साथ में। अविनाश जी दांत के दर्द से पीड़ित थे, उन्हों ने आने से मना कर दिया। अब रवींद्र, सिद्धार्थ, शैलेष और मैं वहां से निकले, शाम के छ: बज गये थे। अंधेरा गहराने
लगा था और हम में से किसी को रास्ता नहीं पता था,
पूछ पूछ कर जाना था।
साढ़े छ: बजे पतिदेव का फ़ोन आया मैं आ गया हूँ।
हमें घर पहुंचने में कम से कम दो घंटे और लगने वाले थे, सब को जोरों की भूख लगी हुई थी। हमने
पतिदेव से कहा कि वो हॉटेल से खाना ले आयें। जो जो सब्जी हमने लाने को कहा था वो
उन्हें कुछ भी याद न रहा। खैर राम राम करते थकान से चूर हम सब करीब साढ़े आठ बजे घर
पहुंचे। पता चला कि पति देव खाना तो ले आये लेकिन खास मेहमान नवाजी करने के लिए
उन्हों ने चावल अपने हाथों से बनाने का निश्चय किया और जब हम पहुंचे तो वो चावल
अभी बनाने जा रहे थे। जब तक चावल बनते भूख से अपना ध्यान हटाने के लिए सिद्धार्थ
जी ने अपना कैमरा निकाल लिया और लगे लेने दनादन फ़ोटो पे फ़ोटो,
कभी इधर की तो कभी उधर की, उस सागर की खाड़ी की भी जो कोहरे की
वजह से नजर नहीं आ रही थी। फ़िश टैंक में जो मछलियां हैं उनके नाम क्या है इस बात
पर रवींद्र जी और सिद्धार्थ जी में एक छोटी सी बहस चल पड़ी। इतने लोग उनके बारे में
बात कर रहे हैं ये देख कर मछलियां में उल्लासित हो कर नाचने लगीं। हमें तो किसी
मछली की प्रजाति का नाम वाम पता नहीं, हमने कहा अगर मेरे पतिदेव से पूछने की गलती की तो फ़िर एक
घंटे का लेक्चर निश्चित है बेहतर यही होगा कि खाना खाने के बाद पूछें। उन्हें
हमारा आइडिया जंच गया और हम सब खाने की टेबल पर पहुंच गये। करीब दस बजे शैलेष ने
कहा वो अपने दोस्त के घर वापस जाना चाहता है। हमने बहुत कहा कि भाई गप्पें लग रहीं
हैं यही रह जाओ पर वो नहीं माना।
खैर उसके जाने के बाद सिद्धार्थ जी
हमारे कंप्युटर पर अपनी रेलवे की टिकट का प्रिंट आउट निकालने की जद्दो जहद करते रहे
पर वैबसाइट प्रिंट आउट लेने ही न देती थी। कहती थी कागज बरबाद नहीं करना चाहिए, पेड़ बचाओ। मैं किचन संभालने चली गयी, इतने में रवींद्र जी नहा कर आये तो
रेलवे की वैब साइट डर गयी और फ़ौरन अपनी मस्ती छोड़ प्रिंट आउट लेने की इजाजत दे दी।
हम सब खूब हंसे। रवींद्र और सिद्धार्थ जी ने मेरे पतिदेव को भी ब्लोगर बनने के लिए
उकसाया,हम तो कब से कह रहे हैं कि इस बिरादरी में शामिल हो जाओ। खैर
वो इस शर्त पर मान गये कि कोई उन्हें ब्लोग बनाना सिखा दे और उस पर फ़ोटो अपलोड
करना सिखा दे। देखें अब किस दिन उनका ब्लोग बनता है। हमने उन्हें ऑफ़र किया कि
हमारा अंग्रेजी वाला ब्लोग वो ले लें। सिद्धार्थ जी और रवींद्र जी के अपने कमरे
में जाने के बाद हम कंप्युटर पर बैठे, दूसरे दिन हमें प्रपत्र पढ़ना था और हमने आज के दिन में
जो कुछ दूसरों को कहते सुना था उस से जुड़ी कुछ बातें उसमें जोड़ना चाह्ते थे। पी पी
टी ठीक करते करते रात का एक बज गया।
दूसरे दिन जब हम सेमिनार हॉल में
पहुंचे तो यूनुस जी बैठे मिल गये और गप्पों का एक और दौर चल पड़ा। लोग तो मंच पर
खड़े हो कर ब्लोगिंग के फ़ायदे गिनवा रहे थे पर हम तो मंच के सामने बैठे उन फ़ायदों
को जी रहे थे। कभी सोचा न था कि ब्लोग मित्रों से मिलना इतना सुखद होगा कि वक्त
कैसे गुजर गया पता ही न चला। सुखद यादों के सिलसिले में एक कड़ी और जुड़ गयी।
सेमिनार की रिपोर्ट परिकल्पना के लिए रवींद्र जी ने बुक कर ली है। इस लिए वो रिपोर्ट वहां देखने को मिलेगी एक दो दिन बाद्…।:)
6 comments:
वाह, यह पढ़कर हमें भी वर्धा के दिनों की याद आ गयी।
अच्छा सेमीनार रहा, बढिया वर्णन किया आपने।
आपकी और बीनू जी की आत्मीयता और मेहमानवाजी के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं, मंत्रमुग्ध हूँ मैं ....आभार भी नहीं कह सकता क्योंकि उससे आत्मीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है .रिपोर्ट की प्रतीक्षा में !
प्रवीण जी, ललित जी, रवींद्र जी धन्यवाद्।
रवींद्र जी मेरे पतिदेव का नाम विनोद है इस लिए मैं वीनू बुलाती हूँ आप ने शायद बीनू समझा।…:)
आप दोनों का आना मेरे लिए आनंद की बात थी जो बरसों मुझे याद रहेगी।
बढ़िया, बहुत कुछ याद दिला दिया आपने।
ब्लॉगजगत से इन दिनों दूरी है, इसलिए देर से पढ़ पाया आपकी यह रपट।
व्लॉगर बंधु भगिनियों से एक आत्मीयता अनुभव तो करते ही रहते हैं आप के इस सेमिनार ने आपको प्रत्यक्षानुभव करा दिया और हम पढ कर खुश हो गये ।
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