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January 24, 2010

आगरे का ठग

अचानक एक आदमी मेरे भाई के पास आया और एक्दम धीमे स्वर में कुछ कहा जो हमें सुनाई नहीं पड़ा। भाई ने साफ़ इंकार कर दिया। अब उस आदमी ने जरा तेज आवाज में कहा, आप मदद करने से भी इंकार कर रहे हैं? मेरे भाई ने हां कहते हुए सर हिला दिया। वो आदमी वहां से हट गया।
हमने पूछा 'क्या कह रहा था?'


भाई ने बड़े लापरवाह अंदाज में बतलाया कि कह रहा था कि 'मैं इंस्पेकटर हूँ, मैं आप को पैसे देता हूँ, आप जरा सामने वाली पेठे की दुकान से आधा किलो पेठा ला कर दे दीजिए, मैं ड्यूटी पर हूँ खरीद नहीं सकता'
हमारी सवालिया नजरों को देख भाई ने ज्ञान बांटते हुए बतलाया कि वो ठग होगा, सौ का नोट देगा और जब पेठा ले कर आ जायेगें तो कहेगा मैने तो पांच सौ दिये थे और आप मुझे कम पैसे दे रहे हैं, उसके और भी साथी होगें, वो सब जमा हो जायेगें और दवाब डालेगें कि उसके पैसे लौटाओ…॥'


वो आदमी अभी भी हमसे कुछ दूरी पर पेठे की दुकान के पास ही खड़ा था। देखने में पढ़ा लिखा किसी मिडिल क्लास परिवार का सदस्य लगे। पता नहीं क्युं हमें उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। मन ही मन सोच रहे थे ये आदमी इस तरह ठगी कर के अपना गुजर बसर करता है? ठग है तो अक्ल भी तेज होगी और शरीर से भी काफ़ी हष्ट पुष्ट है तो कोई ढंग का काम क्युं नहीं करता। पता नहीं लोग मेहनत की रोटी क्युं नहीं खा सकते, इत्यादी इत्यादी। अब हम चारों की नजरें उसका पीछा ऐसे कर रही थीं मानो हम शेरेलोक होम्स के वंशज हैं। हम चारों आपस में कह रहे थे देखा अब उस यात्री को उल्लु बना रहा है। एक आदमी ने उसका अभिवादन किया तो हमने उस आदमी को भी उसके गैंग का मेम्बर समझ लिया। थोड़ी देर बाद वो आदमी वहां से गायब हो गया। हमने सोचा अब वो अपना भाग्य आजमाने प्लेटफ़ार्म के किसी दूसरे हिस्से में चला गया है।


है। इंडीकेटर की तरफ़ देखा तो पता चला पंजाब मेल अब दो बजे आयेगी। पेट में चूहे कूद रहे थे, सुबह जल्दी में नाश्ता भी नहीं खाया था। निर्णय ये लिया गया कि हममें से दो जन पहले खा कर आयेगे और दो जन बाद में। मैं और मेरी भतीजी पहले चले रेलवे कैंटीन की तरफ़्। वही एक जगह थोड़ी साफ़ लग रही थी। जा कर कूपन लिए और खाना मिलने का इंतजार करने लगे। वेटर ने कहा बैठिये एक दस मिनिट लगेगें पर हम खड़े खड़े भतीजी से बतियाते रहे। इतने में हमने देखा वही ठग कैंटीन में घुसा और बेमतलब इधर उधर घूमने लगा। हमने भतीजी से कहा
' लो ये यहां भी आ गया'


उसने हमारी बात सुन ली, वो हमारे पास खिसक आया और बोला 'मैडम आप गलत समझ रही हैं'।इसके पहले कि वो और कुछ कहता हमने आवाज में तल्खी लाते हुए कहा कि हम आप से कुछ नहीं कह रहे और हमें आप से कोई बात नहीं करनी'। गुस्से के मारे हम आप से तुम पर उतर आये और तीखी आवाज में उससे कहा ' तुम यहां से कट लो' , उसने फ़िर कुछ कहना चाहा पर हम कुछ सुनने को तैयार नहीं थे और जोर से कहा ' तुम यहां से कट लो' , अब पता नहीं उसे बम्बइया भाषा आती थी कि नहीं पर वो हमसे कुछ दूर चला गया। तब तक हमारा खाना भी आ गया और हम एक टेबल पर जम गये।

कुछ ही देर में उस ठग के आसपास चार पांच कोटधारी जमा हो गये जिनके कोट पर नाम की पट्टी लगी हुई थी। हम खा रहे थे और देख रहे थे कि ये आदमी अब क्या कर रहा है। वो ठग काउंटर के पीछे गया और जिस वेटर ने हमें खाना दिया था उसे अपने नाखुन दिखाने को कहा, वेटर ने चुपचाप हाथ आगे कर दिये। वो चार पांच आदमी भी अब अंदर की तरफ़ प्रवेश कर चुके थे और अब ये ठग हर चीज का मुआयना कर रहा था और जो कुछ कहता जा रहा था दूसरे लोग नोट करते जा रहे थे। हम सोच में पड़ गये कि अगर ये ठग है तो क्या इतना पावरफ़ुल है कि कैंटीन के कर्मचारी भी इससे कुछ नहीं कह रहे? करीब पंदरह बीस मिनिट वो कैंटीन के एक कोने से दूसरे कोने तक मुआयना करता रहा और बाकी के लोग उसके साथ साथ घूमते रहे। फ़्रीजर खोल के उसने आइसक्रीम निकाली, ऊपर उठा कर देखा और फ़ेंकने के आदेश दिये। करीब साठ कप आइसक्रीम के फ़ेंके गये।


अब हमें लगने लगा कि कहीं न कहीं हमसे भूल हुई है। इस कदर बतमीजी से बात करने पर आत्मग्लानी हो रही थी। हमने खाना आधे में छोड़ा, उठे और बिलिंग काउंटर की तरफ़ बढ़ गये जहां वो ठग अपने गैंग के साथ खड़ा बिलिंग क्लर्क की क्लास ले रहा था। उसकी हमारी तरफ़ पीठ थी। हमने धीरे से उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचने के लिए खंखारा, उसके साथियों ने उसे हमारी उपस्थिती का भान कराया। वो मुड़ा, सवालिया नजरों से देखा, हमने कहा, 'आय एम सॉरी, मुझे आप से ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी'
मुस्कुराहट उसकी आखों तक खिच गयी। उसने कहा कोई बात नहीं आप की भी गलती नहीं।


हमने डेमेज कंट्रोल करते हुए कहा अब हम आप की बात सुनने को तैयार हैं, क्या नाम है आप का? वो मुस्कुराते हुए हमारी टेबल पर चला आया और बतलाया कि उसका नाम अनुपम मिश्रा है और वो डिवीजनल कमर्शिल इंस्पेकटर है। अब ये तो हद्द ही हो गयी वो रेलवे का कर्मचारी है और हमने उसे ठग समझ लिया। हमने हंसते हुए कहा कि भाई ये तो कमाल ही हो गया ये तो ब्लोग जगत में किस्सा बताना पड़ेगा। हमने पूछा आप जानते हैं ब्लोग क्या होता है? मिश्रा जी और उनके साथियों ने नकारत्मक अंदाज में सर हिला दिया। उनके साथी भी अब हमारी बातचीत ध्यान से सुनने लगे। हम तुरंत मास्टरनी के रोल में आ गये लेकिन सिर्फ़ कुछ सेकेंडस के लिए। उन्हें ज्ञान जी के ब्लोग की भी जानकारी दी और कहा कि पढ़ा कीजिए। वेटर से हमने एक नेपकिन मांगा ताकि उनका नाम हम भूल न जायें, उन्हों ने तुरंत बड़े उत्साह से बिलिंग क्लर्क से एक कागज ले कर दिया, फ़िर अपनी मंडली से पेन भी ले कर दिया और बड़े सब्र से अपना पूरा परिचय लिखवाया,
श्री अनुपम मिश्रा, डिवीजन कमर्शिल इंस्पेकटर, एन सी आर आगरा।


अपने आसपास खड़ी मंडली की तरफ़ एक दंभ भरी नजर डालते हुए बड़ी मासुमियत से पूछा “मैडम ये आप का लेख कौन से अखबार में छपेगा?” तब हमें पता चला कि हम कित्ते बेकार मास्टरनी हैं। हमने फ़िर से हिन्दी ब्लोगजगत का पूरा पाठ पढ़ाया, और पूछा लेकिन आप ने हमारे भाई से पेठा लाने को क्युं कहा? उन्होंने बताया कि कानूनन पेठे वाले को वो पेठा 45 रुपये किलो के हिसाब से बेचना चाहिए लेकिन वो बेच रहा है 60 रुपये किलो के हिसाब से, यही पकड़ना चाह्ते थे। फ़िर बड़े बेचारगी भरे स्वर में बोले अभी पिछले महीने ही इसे पंदरह हजार रुपये का फ़ाइन किया है लेकिन फ़िर भी ये वही किये जा रहा है। अंदर की बात बतायें अंदाज में बोले दरअसल रेलवे प्लेटफ़ार्म पे दुकान चलाने का ठेका ये मिनिस्टरी से लेते हैं इनकी पहुंच बड़ी दूर तक है। और भी ढेर सारी जानकारी अपने महकमे के बारे में देते रहे और हमें लगा हम ज्ञान जी का ब्लोग पढ़ रहे हैं।


जब तक हम रेलवे कैंटीन से बाहर आये, मटर छीलने वाली महिलायें जा चुकी थीं पर हमारी गाड़ी का समय हो गया था शाम चार बजे। अंतत: पंजाब मेल आयी शाम को छ: बजे। गाड़ी को आता देख् मन हुआ ताली बजा कर स्वागत करें पर फ़िर रुक गये कि एक दिन के लिए काफ़ी तमाशा हो लिया। मिश्रा जी अगर ये ब्लोग पढ़ रहे हों तो हम उनसे एक बार फ़िर क्षमा मांगते हैं।

20 comments:

प्रमोद ताम्बट said...

मज़ेदार किस्सा। मगर ठगों से सावधानी बरतना भी ज़रूरी है।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in

अनिल कान्त said...

ha ha ha ha :)
majedar kissa bataya aapne :)

Arvind Mishra said...

आप लोगों को तो उसने शरीफ आदमी समझ कर कुछ अर्ज किया मगर क्या जाने की मुम्बायिटों से पला पड़ा है -हा हा मजेदार !
धमाकेदार वापसी की बधायी !

अविनाश वाचस्पति said...

ठग नहीं वो तो गठा हुआ निकला
ऐसे ऐसे गांठ बांधने वाले अपने कार्य
के प्रति ईमानदार हो जायें तो
बहुत कुछ सुधर जाये और
बहुत सारे बेईमान धर लिये जायें।

अनुपम मिश्रा जी को पहुंचे हमारी शुभकामनायें, वे अपनी नेकनीयति को ऐसे ही परवान चढ़ायें। मैं भी जब आगरा जाऊंगा तो उनसे अवश्‍य ही मिल कर आऊंगा।

Udan Tashtari said...

हा हा!! बड़ा रोचक रहा मगर ये अच्छा ही हुआ..आपने मिश्र जी को ठग समझा तो कम से कम उनके ब्लॉगर बनने की उम्मीद जागी. :)

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

किस्सा बेहद रोचक रहा!!
कईं बार अति सावधानी भी इस प्रकार की भ्रममूलक स्थिति का कारण बन जाती है!

अनूप शुक्ल said...

रोचक संस्मरण।
अच्छा हुआ कि मिसिरजी ब्लॉगर न हुये वर्ना अपनी बेइज्जती के लिये ठोंक दिये होते एक ठो नोटिस। मानहानि वाली।

Mithilesh dubey said...

बहुत खूब, बढिया लगा पढकर ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब वह मिश्र था तो कुछ भी हो सकता था। बिना प्रमाण पाए कुछ भी समझा जा सकता था। खैर मिश्र जी आप से ही टकराए थे। कम से ब्लाग जगत तो उन्हें जान ही गया।

36solutions said...

यात्रा संस्मरण की यही मूल रोचकता है. श्री अनुपम मिश्रा, डिवीजन कमर्शिल इंस्पेक्टर, एन सी आर आगरा जी का फोटू होता तो हमारे अगले आगरा ट्रिप मे काम आता.

विवेक रस्तोगी said...

बहुत बढ़िया बेचारे इंसपेक्टर साहब, मास्टरनी जी ने उनकी छुट्टी कर दी। :)

shikha varshney said...

bahut rochak kissa hai..maja aaya

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

रोचक संस्मरण....काश और लोग भी ऐसे ही अपने कर्तव्य को समझें....

Sanjeet Tripathi said...

मजेदार।

वैसे इस कहानी ( सच्ची घटना) से हमें यह तो शिक्षा मिलती है कि कहीं तो कुछ तो लोग हैं जो अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
उन्हें शुभकामनाएं

और आप तो फिलहाल जमाए रहो जे किस्से जी ;)
अभी बंद नई करने का

ghughutibasuti said...

बढ़िया! हम तो अभी भी पक्का नहीं कह सकते कि वे ठग नहीं थे।
पेठा ४५ रुपए किलो! कैसे?अब दुकानदर इस दाम में तो बेचने से रहा।
मिश्राजी ब्लॉगर न भी बनें परन्तु पाठक तो बन ही जाएँ।
घुघूती बासूती

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अभी यह धरती अच्छे लोगों से खाली नहीं हुई है। बस उन्हें पहचानने और सम्मान करने की जरूरत है। जैसे आपने अन्ततः पहचाना और आदर दिया।

अच्छी और सार्थक पोस्ट की बधाई।

Anonymous said...

aap ko thango kaa kafii experience haen mam
phir bhi aap nahin pehchaan paati afsos

Abhishek Ojha said...

मुझे तो अंत तक लग रहा था कि कहीं मिश्राजी सच्ची के ठग तो नहीं निकले. और पिछली पोस्ट में जो 'महिलाओं को ठंढ नहीं लगती' पर तो हमने बहुत चर्चाएँ की है :)

वन्दना अवस्थी दुबे said...

वाह मज़ेदार घटना.

Dr Dinesh Pathak Shashi said...

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