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December 01, 2008

क्या कहूँ

बम्बई की घटनाओं से अभी उबर नहीं पाये हैं। इतनी जल्दी उबर जाते तो हम ही न ग्रह मंत्री हो जाते…।:)
अब इन अंधियारे 59 घंटों का जिक्र सब तरफ़ है तो मन में कुछ न कुछ तो चलेगा ही। (ज्ञान जी से इस शीर्षकचोरी की माफ़ी मांगते हुए)मेरी मानसिक हलचल के कुछ और उदगार । ख्यालों का सिलसिला जारी है।

आतंकी हमलों से बम्बई तो क्या पूरा देश अन्जान नहीं है पहली बार थोड़े न हुए हैं। कश्मीर में आये दिन होते ऐसे हमलों के हम आदी हो चुके हैं, अखबार में पढ़ कर इतने विचलित नहीं होते। बिल्कुल ऐसे ही जैसे पहले पंजाब में होते ऐसे हमले आम बात लगते थे। मीडिया में भी ऐसी घटनाएं एक दो दिन सुर्खियों में रहतीं और फ़िर तुरंत दूसरे ही दिन से कोई और खबर सुर्खी बन जाती। इस बार भी हमें पक्का विश्वास था कि शुक्रवार को ताज आजाद करा लिया गया, आतंकी मारे गये, खेल खत्म्। अब मीडिया कोई और सुर्खियां ढूंढ चुका होगा, ज्यादा से ज्यादा शाम तक खबरें बदल जाएगीं । लेकिन ऐसा नहीं हुआ,शुक्रवार का पूरा दिन बीता, फ़िर शनिवार बीता और आज इतवार भी बीत गया, यानि कि घटना खत्म होने के तीन दिन बाद भी मीडिया में वही ताज पर हमले की खबर सरगर्मी पर है। क्या पाकिस्तानी आका यही नहीं चाहते थे?

शाम को एक सहेली के आव्हान पर शहीदों को श्रद्धांजली देने के लिए आयोजित एक रैली में हिस्सा लेने गये। वापस घर आ कर टी वी खोला तो हर चैनल पर वही एक बात थी, जनता अपना आक्रोश जाहिर करने के लिए सड़कों पर उतरी। रैली में भी वही देख कर आ रहे थे। टी वी में जो फ़ोटोस दिख रही थीं उसमें रैली में हिस्सा लेते लोग संभ्रात धनी परिवारों से दिख रहे थे और महिलाएं ज्यादा दिख रही थीं। ऐसा ही आक्रोश हमने कारगिल युद्ध के समय महसूस किया था ,खुद अपने अंदर और दूसरों में भी। इन दोनों घटनाओं के समय जनता का गुस्सा पाकिस्तान की तरफ़ तो है ही लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा गुस्सा सरकार की नपुंसकता पर है, मंत्रियों के घटनाओं को हल्के तौर पर लेने से है। आर आर पाटिल का कहना कि 'बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी मोटी घटनाएं होती रहती हैं' न सिर्फ़ ओछा लगा बल्कि फ़िल्मी भी लगा, मानो शाहरुख खान से ये डायलाग चुराया हो, सिर्फ़ आगे सिनोरिटा नहीं कहा। विलासराव देशमुख का आज ताज का दौरा करना अपने फ़िल्मी बेटे के साथ और फ़िल्म डायरेक्टर राम गोपाल वर्मा के साथ एक और ओछेपन का सबूत था। राम गोपाल वर्मा ने जरूर अपनी नयी फ़िल्म का प्लोट लिख लिया होगा, विलासराव के बेटे को हीरो का रोल दे दिया होगा और शूटिंग की लोकेशन देखने आया होगा। अरे, शहीदों का खून तो सूख जाने दिया होता।

कारगिल के समय भी हमारे कई जांबाज सिपाहियों को अकारण मौत को गले लगाना पड़ा था क्युं की किसी मंत्री ने, किसी नौकरशाह ने कारगिल में जरुरत पड़ने वाले समान को सिपाहियों को मुहैया कराना फ़जूल समझा था अपना विदेश घूमना ज्यादा जायज लगा था उन्हें। इस बार भी कई पुलिस अफ़सर और पुलिस कर्मी इस लिए बलि चढ़े क्युं कि हेल्मेट और बुलैटप्रूफ़ जैकेट हल्की क्वालिटी की थी या जंग खायी हुई थीं।

केरला के चीफ़ मिनिस्टर का उन्नीकृष्णन के घर जा कर तमाशा करना देख सर शर्म से झुक गया। हम सोच रहे थे राजनेता और राजनीति कितनी धरातल में धंस गयी है कि अब ये लोग मुर्दों के बल पर सत्ता का खेल खेलने लगें। इस प्रजातंत्र में किसी को अपने स्वजन के जाने पर शांती से प्र्लाप करने का भी अधिकार नहीं रह गया। रोना है तो मीडिया के कैमरे के सामने और किसी न किसी मिनिस्टर के कुर्ते के छोर को पकड़ कर ही रोओ ताकि सब तुम्हारे ये आंसू भुना सकें। हमारे झुके हुए सर को देख धरा ने हमें टोका और कहा " एक्यूज मी, ये तुम्हारे जगत के राजनेता और राजनीति की गंदगी ढोने की ताब मुझ में नहीं है, कहीं और जा कर फ़ेकों"
शिव जी की पोस्ट लगा हमारे ही मन की भावनाओं को उजागर करती है, इसे देखिए


खैर उसकी बात तो हम अनसुनी कर गये, लेकिन एक बात रह रह कर मन में उठ रही है, कारगिल के समय हमने बम्बई में कम से कम जनता को इस तरह अपने आक्रोश का प्रदर्शन करते नहीं देखा था, क्या इस बार आक्रोश ज्यादा है या इस बार पहली बार अमीरों को आतंकवाद ने छुआ है इस लिए प्रदर्शन कहीं ज्यादा सगंठित है और इसी लिए दिख भी रहा है। गरीब जनता ट्रेनों में , टेक्सियों में , बाजारों में हर बार मार खा कर चिल्ला चुल्लु कर चुप हो जाती थी ,कोई सुनने वाला न होता था। पर इस बार अमीरों के घरों में आग लगी है, सरकार पर इस लिए दवाब ज्यादा है या इस बार मीडिया ज्यादा सक्रिय हो गया है और जनता के आक्रोश को जगाये रखना चाहता है, अगर हां तो क्युं? क्या मीडिया को अभी तक इस से बड़ी कोई खबर नहीं मिली या इस लिए कि चुनाव नजदीक हैं और सरकार अमीरों के दवाब से बौखला रही है और मीडिया मजे ले रहा है।

इन सब बातों में एक बात अच्छी हुई( हमारे हिसाब से)और वो ये कि वी पी सिंह के मरने पर ज्यादा ताम झाम नहीं हुआ। एक तरह से गुमनामी की मौत मरा। कहते हैं न कर्मों का फ़ल यहीं मिलता है।…॥:) अब हमें ये बात क्युं अच्छी लगी ये फ़िर कभी।
अपने मन के इन उदगारों को क्या नाम दूं समझ नहीं पा रही, आप ही बता दीजिए क्या कहूँ ?

14 comments:

डा. अमर कुमार said...



चलिये इतना कुछ लुटा कर भी होश आ जाये, तो गनीमत है ।
सबसे पहले हमें वोटधर्म और देशधर्म की राजनीति करने वालों में फ़र्क करने की तमीज़ सीखनी होगी ।
सभी अपेक्षायें सरकार से ही क्यों ? क्या स्थानीय सहयोग के बिना इतनी बड़ी हिमाकत संभव है ?
अपने बीच छिपे विभीषणों की शिनाख़्त कर उनको सामने लाना होगा । इस टिप्पणी को सांप्रदायिक संदर्भ में न देखा जाये.. क्योंकि विभीषणों का कोई मज़हब नहीं होता, अनीता जी ! कमज़ोरी हमारी एकजुटता की भी है ।
न जाने क्यों, विगत तीन चार दिनों से इन्दिरा गाँधी का न होना अख़र रहा है !

Arvind Mishra said...

जिस मीडिया को कई लोग कोस रहे हैं उसने आँखों देखा सच लोगों तक पहुंचाया -इसका असर है लोगों पर .अपने अपने स्वभाव के मुताबिक हर शख्स इस घटना से आंदोलित है कोई वीतराग हो गया है तो कोई आक्रोश से पागल को कोई बेबसी से आत्मप्रवंची ! कुछ ब्लॉगर मित्र उस श्रेणी के भी हैं कि 'सबसे भले वे मूढ़ जिन्हहि न व्यापत जगत गति' वी पी मरे तो किंतु अपने अपयशी काया में वे कुछ काल तक और जिंदा रहेंगे और फिर काल के बियाबान में गुम हो जायेंगे ! मुद्दों को उनके सन्दर्भ में व्यक्त करने के लिए शुक्रिया !

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप का ब्लाग पर लौट आना सुखद लग रहा है। पर अब लम्बी छुट्टी नहीं।

नीरज गोस्वामी said...

आप की लिखी एक एक बात सच्ची है...आप का दर्द हर संवेदन शील भारत वासी का दर्द बयां करता है...
नीरज

Gyan Dutt Pandey said...

आपकी पोस्ट से फिर इस विषय में सोचने के मोड में चला गया मैं। असल में बहुत कुछ कुलबुला रहा है मन में।
आप, भी, देखिये न, बहुत समय बाद पोस्ट लिखने को प्रेरित हो गयीं।
ब्लॉग का ध्येय ही अपने मन का उड़ेलने के लिये। आपने अच्छा किया जो लिखा।

Abhishek Ojha said...

आज तो पुरे दिन कौन गया उसकी जगह अगला 'मैडम का विश्वासपात्र' कौन आएगा... कितना नाटक चल रहा है, सबको अपनी पड़ी है... कम से कम कुछ दिन तो निस्वार्थ रह सकते थे ये लोग !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने आतँकीयोँ का विरोध करने का काम सही किया है -
भारत का एक एक नागरिक अब तैयार हो जाये , तभी ऐसे हादसे रोक पायेँगेँ
"चाँदी के चँद टुकडोँ के लिये,
इमान को बेचा जाता है,
इन्सान को बेचा जाता है -
इसे ख्त्म होना है

Satish Saxena said...

आज आपका बेबाक लेख पढ़ कर मज़ा आगया ! बहुत अच्छा लिखा है आपने ! शुभकामनाएं !

दिवाकर प्रताप सिंह said...

आपका बेबाक लेख पढ़ कर अच्छा लगा, आपकी संवेदनाओं से अभिभूत हूँ !

Harshad Jangla said...

Didi
Very thoughtful writing.
Dhanyavaad.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

सुनीता शानू said...

अनीता जी आपके ब्लॉग को अपने ब्लॉग पर टांक कर बैठे हैं मगर बहुत दिनो से किसी को पढ़ नही पायें , आपको मेल करेंगें...जल्द ही

Asha Joglekar said...

बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर झांका, आप नजर आईं तो अच्छा लगा । क्या हम सब हताश नही महसूस कर रहे, कुछ कर नही पा रहे, हाथ मल रहे हैं । अरे कम से कम पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र तो घोषित करवाओ ।
मंडल वाले भू-मंडल से विदा हुए एक विवादी राजनीती बाज तो विलुप्त हुआ ।

Ashish Maharishi said...

नमस्कार..कैसी हैं आप..ब्लॉग पर अब आना कम हो गया है..नौकरी पर लगे हुए हैं

Gyan Darpan said...

आज चिट्ठा चर्चा के माध्यम से आपके व आपके ब्लॉग के बारे में जानकारी मिली ! यहाँ आपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी