60 के दशक में जब हम पहली बार बम्बई आये अपने पूरे बोरिया बिस्तर समेत तो हमारे सबसे छोटे मामा और सबसे छोटे चाचा भी आये। जिन्हों ने बम्बई न देखा हो उनके लिए आज भी बम्बई का जबरदस्त आकर्षण है, तब भी था, इस ख्याल से कि हमारी बहन अब बम्बई वासी होने जा रही है मामा ऐसे पुलकित थे मानो हम लोग विदेश में बसने जा रहे हैं। मामा चाचा दोनों जवां, अभी अभी कॉलेज की पढ़ाई खत्म कर के निकले थे। आखों में कई बेसिर पैर के सपने। रोह सुबह दोनों बसों के रूट समझ कर बम्बई की सड़के नापने निकल जाते। मन में आस होती कि शायद अपनी मन पसंद हिरोइन स्टुडियो जाती दिख जाए और इनका जीवन धन्य हो जाए। उम्र का तकाजा था, आई टॉनिक भी खूब पीते थे। लेकिन संतुष्ट नहीं।
हमारे एक रिश्तेदार जो बरसों से बम्बई में थे उनसे ये दोनों बहुत खुले हुए थे,रोज शाम को उन रिशतेदार के घर महफ़िल जमती, हम भी शामिल होते। मेरे मामा और चाचा आहें भरते, बम्बई का नाम तो बहुत है पर अपने दिल्ली जैसी बात नहीं
क्युं भाई
अरे यहां कोई लड़की चलती ही नहीं , सब दौड़ती हैं, बस के पीछे, ट्रेन के पीछे, दिल्ली की लड़कियों को देखो, सुबह कॉलेज के लिए भी निकलें तो पूरी सज संवर कर, काजल लिप्सटिक से लैस, और यहां देखो, कोई इक्का दुक्का लड़की हील वाली सैंडल पहने मिलेगी, सब फ़्लैट चप्प्लें पहने हुए। इनको देख कर कोई कवि क्या लिखेगा "क्या चाल है तोरी"। यहां की लड़कियों को न कपड़ा पहनने का शऊर है न चलने का।
अरे भाई हील पहनेगी तो दौड़ कर बस या ट्रेन कैसे पकड़ेगी, हमारे रिश्तेदार समझाते। बसें तो तब भी भरी हुईं आती थी, और लोकल ट्रेन तो एक मिनिट भी मुश्किल से रुकती है।
मेरे मामा चाचा तो खैर निराश हो कर चले गये, लेकिन आज इतने साल बाद भी कुछ नहीं बदला है। उलटे आवास दफ़तर से और दूर चले गये है शहर की परिधी बढ़ गयी है।
बम्बई में लगभग 99% औरतें काम पर जाती हैं। एक साधारण महिला जो नारीमन पॉइंट पर काम करती है और डोंबिवली या विरार रहती है, उसकी दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरु होती है। सुबह उठ कर पतिदेव के लिए, बच्चों के लिए डब्बे बनाने, बच्चों को तैयार करना, बाई भी सुबह 6 बजे तक आ जाती है उससे पूरा काम करवाना,एक कप चाय बैठ कर पी सके ऐसा तो नसीब कहां, खड़े खड़े ही बच्चों को तैयार करते हुए ठंडी चाय एक ही सांस में गटक ली जाए तो गनीमत है, कभी कभी वो भी भूल जाती है।
सुबह सात बजे बच्चों को लगभग खीचते हुए स्कूल में छोड़ना, फ़िर लगभग भागते हुए, हांफ़ते हुए प्लेटफ़ार्म पर पहुंचना,ये मुए रेलवे वाले भी प्लेट्फ़ार्म दरवाजे के पास ही क्युं नहीं बना देते, ब्रिज चढ़ना पड़ता है, मन में गुमड़ते विचार- गैस बंद की कि नहीं, घर की चाबी ली की नहीं। ये ट्रेन क्युं नही आई अभी तक, आज फ़िर लेट का रिमार्क लगेगा, ये रेलवे वाले भी ट्रेन क्युं टाइम पर नहीं चला सकते।प्लेट्फ़ार्म के किनारे तक जा जा कर झांकना, मानों इसके इस तरह लटकने से ट्रेन जल्दी आ जाएगी। दूर से ट्रेन आती दिखे तो साड़ी उठा कर कमर में खौंस लेना, बैग आगे कर लेना जेबकतरों के डर से, देख कर ऐसा लगता है मानों कोई शेर शिकार करने को तैयार हो। गाड़ी नजदीक आते ही कूद कर अंदर घुसने की कौशिश न करे तो पूरे एक घंटे का सफ़र खड़े खड़े ही गुजारना पड़े।दरवाजे के पास मच्छी वालीयां अपनी टोकरी लिए मजे से बतियां रही हैं यहां नाक सड़े जा रही है।क्या करें पंगा भी तो नहीं ले सकते।
एक घंटे बाद वी टी पर या चर्चगेट उतर फ़िर बस की लाइन में लगो नारिमन पॉंइंट जाने के लिए, टेक्सी वाले मुए डबल दाम मांगते हैं, अब रोज रोज टेक्सी करो तो बचाओ क्या? जैसे तैसे दफ़्तर पहुंच कर सांस में सांस आती है। फ़ौरन केंटीन वाले को गरम चाय का ऑर्डर, अब जाके दिन की पहली चाय ठीक से पी है वो भी मनों शक्कर के साथ, मुंह कड़वा हो जाता है, हजार बार समझाया कि इतनी शक्कर न डाले पर वो तो एक कान से सुन दूसरे से बाहर्। रोज सोचती है कल से थर्मस में अपनी चाय लाएगी पर वक्त ही नहीं मिल पाता।
शाम चार बजे से नजरें घड़ी की सुइयों पर अटक जाती हैं जैसे ही पांच बजे वो बैग वैग ले कर दफ़तर से आनन फ़ानन में बाहर, बॉस बोलता है सब कामचोर हैं, मुफ़त में तन्ख्वाह लेना चाहती हैं , वो एक कान से सुन दूसरे कान से बाहर निकाल देती है। तेज तेज चलते चलते सब्जी का थैला बैग से बाहर निकल आता है। भाजी पाला खरीद भारी भरकम थैलों के साथ वी टी स्टेशन और फ़िर शेर के शिकार करने जैसे कूद कर गाड़ी में घुसना ताकि सीट मिल सके, अगर खिड़की के पास वाली सीट मिल जाए तो क्या बात है। सीट मिलते ही वो अपने दुखते पैरों में से चप्पल निकाल पांव फ़ैलाने की कौशिश करती है। सब्जी निकाल वहीं छीलना, काटना, टाइम मैनेंजमैंट में परांगत( बॉस कुछ भी सोचे), एक घंटे बाद डोंबिवली स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले वो खड़ी हो जाती है। जितना सुबह चढ़ना मुशकिल है उतना ही शाम को उतरना। सबसे आसान तरीका है भीड़ के आगे खड़े हो जाओ, भीड़ खुद बखुद ढ्केल देगी।
स्टेशन उतर फ़िर वही मुआ ब्रिज चढ़ो, गनिमत है स्टेशन के बाहर ही गरमागरम रोटियां मिल जाती है, दो रुपये की एक, दस रोटियां पैक करवा, रास्ते में से बच्चे को बेबी सिट्टर के पास से वापस ले सात बजे घर पहुंचती है, सामान पटक बच्चे की दिन भर की जमी बातें सुनती सीधे किचन में, ट्रेन में काटी भाजी को छोंकना, पतिदेव के आने से पहले, गंदे कपड़े मशीन में डालना, घर बेतरदीबी से बिखरा पड़ा है उसे संभालना, दूसरे बच्चे का होम वर्क, यूनीफ़ार्म को प्रेस, किताबों को कवर चढ़ाना, करते करते रत के 11 बजे किचन साफ़ कर बिस्तर पर पड़ रहना।
अब बताइए कब हाई हील की चप्प्ले पहने या लिप्स्टिके लगाए, शीशे में ठीक से शक्ल देखे भी हफ़्तों गुजर जाते हैं। इतवार के दिन कोई किसी के घर आता जाता नहीं, पूरे हफ़ते की थकान निकालनी और नींद पूरी करनी, फ़िर नये हफ़ते इस भट्टी में झोकें जाने के लिए
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तैयार्।
हर हाल में चेहरे पर हसीं बरकरार, ये है बोम्बे मेरी जान